गृहपति के अग्निश्वर

Grihpati-ke-agneshwar

पूर्वकाल में नर्मदा नदी के तट पर नर्मपुर नामक एक नगर था
. वहां विश्वानर नामक एक मुनि रहते थे| वे परम शिव भक्त व जितेंद्रिय थे| उनका गृहस्थ जीवन बड़ा ही सुखी था
. एक बार उनकी पत्नी शुचिष्मती ने उनसे कहा – “स्वामी! मेरे मन में बड़े समय से एक इच्छा है|”
. मुनीश्वर बोले – “ऐसी क्या इच्छा है, जो तुम्हें इतने समय तक अपने हृदय में दबाकर रखनी पड़ी| नि:संकोच होकर कहो”
. देवी शुचिष्मती बोली – “हे देव! मैं आपसे भगवान महेश्वर जैसा एक तेजस्वी पुत्र चाहती हूं| कृपा कर आप मेरी इस इच्छा को पूर्ण करें”
. पत्नी की बात सुनकर विश्वानर क्षण भर के लिए स्तब्ध हो गए| वे सोचने लगे कि मेरी पत्नी ने यह कैसा दुर्लभ वर मांग लिया
. ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान पिनाकी रुद्र स्वयं उसकी जिह्वा पर बैठकर बोल रहे हैं
. ऐसा विचार करके उन्होंने अपनी पत्नी को आश्वासन दे दिया, वे वाराणसी जा पहुंचे और कठिन तप द्वारा भगवान शंकर के वीरेश लिंग की उपासना करने लगे
. तपस्या करते-करते विश्वानर को बारह मास बीत गए। तेरहवें मास में एक दिन स्नादि करके जैसे ही वे वीरेश लिंग के निकट पहुंचे, उन्हें लिंग के मध्य में एक बालक दिखाई दिया, जिसकी आयु आठ वर्ष थी।
. उसके मस्तक पर पीले रंग की जटा सुशोभित थी तथा मुख पर मुस्कान खेल रही थी।
. उसके सर्वाग भस्मयुक्त थे तथा वह दिव्य बालक श्रुति-सूक्तों का पाठ कर रहा था।
. उस बालक को देखकर विश्वानर मुनि रोमांचित हो उठे और अभीलाषा पूर्ण करने वाले आठ पद्यों द्वारा भगवान शिव की स्तुति करने लगे।
. उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर बाल रूप भगवान शिव ने कहा – “महामते! मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं।

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अब तुम अपने घर जाओ। समय आने पर मैं तुम्हारी पत्नी की इच्छा अवश्य पूर्ण करूंगा। मैं उसके गर्भ से पुत्र रूप में प्रकट होऊंगा।
. उस अवतार में मेरा नाम गृहपति होगा। मैं परम पावन व सभी देवताओं का प्रिय होऊंगा?”
. विश्वानर ने भगवान शिव के बाल रूप को प्रणाम किया और अपने घर लौट गए।
. समय आने पर समस्त अभीष्टों के विनाशक तथा दोनों लोकों के लिए सुखदायक भगवान रुद्र का शुचिष्मती के गर्भ से अवतार हुआ।
. उस बालक का जात कर्म करने के लिए स्वयं ब्रह्मा मुनि विश्वानर के घर उपस्थित हुए और उन्होंने उसका नाम गृहपति रखा।
. तत्पश्चात विश्वानर ने स्वयं उस बालक को वेदों आदि की शिक्षा दी।
. जब वह बालक नौ वर्ष का हुआ तो एक दिन देवर्षि नारद उसके दर्शन हेतु विश्वानर के घर पधारे।
. मुनि विश्वानर ने उनका हृदय से सत्कार कर यथोचित आसनादि दिए।
. तब नारद जी ने कहा – “हे मुनि! तुम्हारा यह पुत्र बड़ा ही भाग्यशाली है। किंतु एक आशंका मुझे व्यथित किए हुए हैं।”
. विश्वानर ने चौंककर पूछा – “कैसी आशंका महर्षि?”
. महर्षि नारद ने उत्तर दिया – “मेरी आशंका यह है कि जब तुम्हारा यह पुत्र बारह वर्ष का होगा, तो इस पर बिजली या पानी का भय आएगा।”
. यह सुनकर मुनि विश्वानर और उनकी पत्नी गहन चिंता में डूब गए।
. उन्हें इस प्रकार चिंताग्रस्त हुए देखकर गृहपति ने कहा – “पिताश्री! आप चिंतित न हों। देवाधिदेव महादेव की कृपा से कुछ नहीं होगा।
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ये तो कालों के भी काल हैं। आप मुझे काशी जाने की आज्ञा दें।” . मुनि ने आज्ञा दे दी। काशी पहुंचकर गृहपति नित्य गंगा जल से पूर्ण एक सौ आठ कलशों द्वारा भगवान शिव का अभिषेक तथा शिव मन्त्र का जप करने लगे।
. जब उन्होंने बारहवें वर्ष में प्रवेश किया तो एक दिन इंद्र उनके समक्ष प्रकट हुए और बोले – “विप्रवर! मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूं। अपनी इच्छानुसार वर मांगो।”
. इस पर गृहपति बोले – “आप चले जाइए इंद्रदेव! मैं पशुपतिनाथ के अतिरिक्त और किसी से वर पाने का इच्छुक नहीं हूं।
. वैसे भी आप छल से अहल्या का सतीत्व नष्ट करने वाले, पर्वत शत्रु इंद्र ही तो हैं।
. बालक गृहपति की बात सुनकर इंद्र को क्रोध आ गया। उसने अपने वज्र से उन्हें डराया, जिससे गृहपति को मूर्च्छा आ गई।
. तभी भगवान शिव ने प्रकट होकर कहा – “उठो वत्स! जो मेरा भक्त है, उस पर इंद्र तो क्या यम भी दृष्टि नहीं डाल सकते।
. आज से मैं तुम्हें अग्नि पद प्रदान करता हूं। तुम्हारे द्वारा स्थापित यह लिंग काशी में अग्निश्वर के नाम से प्रसिद्ध होगा।